आप तय नहीं कर सकते
कि आपको किसके साथ खड़े होना है
अनुमान करना असम्भव जान पड़ता है
कि आप खड़े हों सूरज की ओर
और शामिल न कर लिया जाए
आपको अन्धेरे के हक में
रंगों ने बदल ली है
अपनी रंगत इन दिनो
कितना कठिन है यह अनुमान भी कर पाना
कि जिसे आप समझ रहे हैं
मशाल
उसको जलाने के लिए आग
धरती के गर्भ में पैदा हुई थी
या उसे चुराया गया है
सूरज की जलती हुई रोशनी से
यह चिन्गारी किसी चूल्हे की आग से उठाई गई है
या चिता से
या जलती हुई झुग्गियों से
जान नहीं सकते हैं आप
कि यह किसी हवन में आहूती है
या आग में घी डाल रहे हैं आप
यह आग कहीं आपको
गोधरा के स्टेशन पर तो
खड़ा नहीं कर देगी
इसका पता कौन देगा
8 टिप्पणियां:
यह नया तेवर है तुम्हारी कविता का . और अच्छा है.
मेरे जैसे तमाम लोग इस गुमराह समय में बौखलाए घुमते रह्ते हैं, जबकि तुम्हारे जैसे लोग इसे कविता में रच देते हैं।
अच्छा लगा।
bahut khoob!
एकदम नया अन्दाज़।
sateek. sundar
bahut badhiya devyani
Bahut gambheer tevar liye hue hai aapki ye kavita. Bahut sundar.
behatreen devyani ji.. vakai ye samay gumrah karane ka hai...
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