गुरुवार, 18 अगस्त 2011

यह समय गुमराह करने का समय है

यह समय गुमराह करने का समय है
आप तय नहीं कर सकते
कि आपको किसके साथ खड़े होना है
अनुमान करना असम्भव जान पड़ता है
कि आप खड़े हों सूरज की ओर
और शामिल न कर लिया जाए
आपको अन्धेरे के हक में

रंगों ने बदल ली है
अपनी रंगत इन दिनो
कितना कठिन है यह अनुमान भी कर पाना
कि जिसे आप समझ रहे हैं
मशाल
उसको जलाने के लिए आग
धरती के गर्भ में पैदा हुई थी
या उसे चुराया गया है
सूरज की जलती हुई रोशनी से
यह चिन्गारी किसी चूल्हे की आग से उठाई गई है
या चिता से
या जलती हुई झुग्गियों से
जान नहीं सकते हैं आप
कि यह किसी हवन में आहूती है
या आग में घी डाल रहे हैं आप
यह आग कहीं आपको
गोधरा के स्टेशन पर तो
खड़ा नहीं कर देगी
इसका पता कौन देगा

8 टिप्‍पणियां:

himanshu ने कहा…

यह नया तेवर है तुम्हारी कविता का . और अच्छा है.

बेनामी ने कहा…

मेरे जैसे तमाम लोग इस गुमराह समय में बौखलाए घुमते रह्ते हैं, जबकि तुम्हारे जैसे लोग इसे कविता में रच देते हैं।
अच्छा लगा।

Ramkishan Adig ने कहा…

bahut khoob!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

एकदम नया अन्दाज़।

लीना मल्होत्रा ने कहा…

sateek. sundar

varsha ने कहा…

bahut badhiya devyani

Dharmender ने कहा…

Bahut gambheer tevar liye hue hai aapki ye kavita. Bahut sundar.

कमल किशोर जैन ने कहा…

behatreen devyani ji.. vakai ye samay gumrah karane ka hai...