शनिवार, 14 दिसंबर 2013

कुछ भी होने और न होने के बीच कहीं


नहीं कहना

अब नहीं कहना
दुख है
जितना कहा
दुख बढता गया

अब नहीं कहना
सुख आओ
जितना पुकारा
सुख दूर होता गया

स्थितप्रज्ञ भी नहीं
कभी दुख का कभी सुख का पलडा
झुकता गया

कुछ भी होने और न होने के बीच कहीं
सुख को पुकारना नहीं
दुख को नकारना नहीं
आंसू जो लुढकना चाहता है
उसे आंख में संजोना भी नहीं
गाल पर ढुलकाना भी नहीं
सुरमा बना लेना भी नहीं
यह जो आंसू मेरे हैं
यह गढते मुझे
और मैं रचती जाती जीवन

जितनी बार पराजय
उतनी बार नया जीवन
मेरे सब दुख
मेरे भीतर सुख की प्यास
बन घुलते जाते



तुम 

एक तुम वह हो
जो तुम हो
बतियाते हो मुझसे
मुझे सुनते हो
जाने क्या सोचते हो
जाने कैसे रहते हो
क्या  चाहते हो
क्यों चाहते हो
चाहते भी हो या नहीं चाहते हो

एक तुम है
जो मुझमें है
शायद तुमसे मिलता सा
शायद न मिलता हो तुमसे इस तरह
मैं अपने भीतर के इस तुम से बतियाती हूं
उसकी आवाजें तुम तक जाती हैं

जब तुम कहते हो 
मैं मुझमें बैठे तुम को सुनती हूं

यह जो तुम बाहर हो
मेरे सामने
यह जो मुझमें है
क्या यह भी बतियाते हैं
दोनों



शब्दार्थ
शब्द
अकेला
निरर्थक
जैसे सांप की
छोडी जा चुकी केंचुल
जब तक
अर्थ की संगति न मिले

अर्थ
कहां ठहरता है
किसी एक शब्द की संगति में
अंटता ही नहीं पूरा
हर शब्द के कई अर्थ

जो कहा गया
जो सुना गया
कहां होता है
दोनों शब्दों का
एक अर्थ

जो कहना हो
उसके लिए सही शब्द
किस कारखाने में
गढे जाते हैं
जो सुनने हों
वे शब्दे मिलते हैं कहां

सोमवार, 2 सितंबर 2013

जबकि जरूरत थी जागने की

जबकि जरूरत थी जागने की 
कहा गया 
सो जाओ अब 
रात बहुत हो चुकी है 
रात है कि तबसे गहराती जा रही है 

रात के अकेले पहरेदार की लाठी 
हो चुकी जर्जर 
गला भर्रा गया है  
सीटी अब चीखती नहीं 
कराहती है महज 

कवि कलाकार 
श्रेष्‍ठता की चर्चा में रत 
निकृष्‍टतम मुहावरों की होड जारी है 
गालियों का शब्‍दकोष रचा जा रहा 
इंटरनेट और अखबारों में 

जनआंदोलनों में अब भागीदारी 
लाइक, शेयर और कमेंट में सिमटी जा रही 

नींद से बोझिल पलकें 
आखिरी जाम 
आखिरी कमेंट 

इसी बीच 
तमाम नए स्‍टेटस अपडेट 
मुंबई में पत्रकार से बलात्‍कार 
रुपया है कि लुढकता जा रहा 
एक लंपट संत का कुकर्म 
प्रमाण नहीं 
प्रमाण नहीं 
शर्म से झुका जा रहा मस्‍तक 
आत्‍मा पर कुलबुलाता है 
बेबसी का कीडा 
रात है कि गहराती जा रही 
नींद दूर तक कहीं नहीं 
और जगाने को कोई अलख भी नहीं 

रविवार, 30 जून 2013

आत्‍मालाप

क्‍या दिन में चौबीस की बजाय चंवालीस घंटे नहीं हो सकते 

सप्‍ताह में सात ही दिन क्‍यों होते हैं 
नौ दिन हो जाते तो क्‍या बुरा था 

क्‍या इतवार दो नहीं आ सकते 

रात सोने के लिए क्‍यों होती है 
रातों में क्‍या जाग कर काम नहीं किया जा सकता 

आखिर इस देह को भोजन, पानी, आराम की जरूरत ही क्‍या है 
कितना कुछ तो है 
जो हर वक्‍त करने के लिए अधूरा छूटा रहता है 
सिर्फ ऐसा कुछ 
जो अपने सही समय पर होता रहे 
तो चलता रह सके जीवन का कारोबार 

पर समय कमबख्‍त हमेशा कम क्‍यों होता है 

क्‍या इन घडी की सूइयों को बांध कर नहीं रखा जा सकता 

इन्‍हें तो घूमना होता है सिर्फ एक दायरे में
लेकिन कैसी सांसत में रहती है जान 
इनके पीछे 

क्‍या कभी ऐसा नहीं हो सकता कि 
दुनिया की सारी घडिृया कुछ देर के लिए ठप्‍प पड जाएं 

मंगलवार, 18 जून 2013

दूर नहीं वह दिन

कितनी तो तरक्‍की कर गया है विज्ञान  
वनस्‍पतियों की होने लगी हैं संकर और उन्‍नत किस्‍में 
फूलों में भर दिए गए हैं मनचाहे रंग 

देह का कोई भी अंग बदला जा सकता है 
मन मुताबिक 
हृदयगुर्दा, आंख या कान 
सभी का संभव है प्रत्‍यारोपण 

मर कर भी न छूटे मोह दुनिया देखने का 
तो छोड़ कर जा सकते हैं 
आप अपनी आंख 
किसी और की निगाह बन कर 
देखा करेंगे इस दुनिया के कारोबार 
बशर्ते बचा हो जीवन के प्रति ऐसा अनुराग 

हांफने लगा न हो हृदय अगर 
जीने में इस जीवन को दुर्निवार 
तो छोड़ जाइए अपना हृदय 
किसी और सीने में 
फिर धड़कने के लिए एक बार
शीरीं-फरहादऔर लैला-मजनूं की तरह 
धड़कता रहेगा यह 
अगर है कोई स्‍वर्ग 
तो वहां से झांक कर देखा करेंगे जिसे आप 

जीते जी दूसरे की देह में 
लगवा सकते हैं आप अपना गुर्दा 
एक से अपना जीवन चलाते हुए 
दूसरे से किसी अन्‍य का जीवन चलता है 
यह सोच थोड़ी और गर्वीली हो सकती है आपकी चाल  

यह तो कुछ नैतिकता के प्रश्‍न 
आने लगे हैं आड़े
वर्ना जितने चाहें उतने अपने प्रतिरूप 
बना सकता है मनुष्‍य 

शायद दूर नहीं व‍ह दिन भी अब 
आपकी खोपड़ी का ढक्‍कन खोल 
बदलवा सकेंगे जब आप 
इसमें उपजते विचार 
राजनीतिकों की बात दीगर हैं 
जिनके खोखल में अवसरानुकूल स्‍वत: 
बदल जाते हैं विचार और प्रतिबद्धताएं 

आप जो स्मृतियों में जीते हैं 
नफा नुकसान की भाषा नहीं समझते हैं 
आपके भी हाथ में होगा तब यह उपाय 
जगह जगह होंगे ऐसे क्लिनिक 
जिनमें जाकर  
बारिश की स्‍मृतियों को बेच सकेंगे औन-पौने दाम 
और बदले में रोप दी जाएंगी सफलता की कामनाएं तमाम  
जिन चेहरों को भुलाना मुश्किल होगा 
सिनेमा की डीवीडी की तरह बदली जा सकेंगी 
उनकी छवियां  
टाम क्रूजजॉनी डेप्‍प और जेनिफर लोपेज 
जिसकी भी चाहेंगे  
उनकी स्‍मृतियों से अंटा होगा आपकी यादों का संसार

मंगलवार, 11 जून 2013

सदानीरा में प्रकाशित कविताओं में से

तुम्हारी हथेली में समा जाये ऐसा रूई का फाहा हो जाना चाहती हूँ मैं 


तुम्हारी हथेली में समा जाये ऐसा रूई का फाहा हो जाना चाहती हूँ मैं 
मुंह में घुल जाए ऐसी गुड़ की डली हो जाना चाहती हूँ हवा की तरह अदृश्य 
फुहार की तरह नम 
बिजली सी चमकदार 
नदी सी प्रवाहमान 
वो सब कुछ हो जाना चाहती हूँ 
जिसकी कामना करते हुए 
तुम सहेजते हो मुझे हर बार 
टूटने से बचाते हुए 

बात सिर्फ इतनी सी है कि 
स्टेशन पर छूटने को तैयार खड़ी गाडी के पीछे 
दौड़ चली थी मैं
दौड़ते दौड़ते हांफने लगी 
अजीब ज़िद्दी धुन थी सवार 
कि भागती ही रही जब तक कि 
हो न गयी निढ़ाल 
फिलहाल थकन तारी है 
टूट रहा है जोड़ जोड़ 

यह जो नेह का मलहम है 
इससे लेप लेना चाहती हूँ 
समूची देह मन और प्राण 
पर जख्म अभी हरे हैं 
रह रह कर उठती है टीस 
रिसने लगता है लहू यहाँ वहां 
पर अपार है तुम्हारा धैर्य 
तुमने स्वर्ग के द्वार पर सजा रखे हैं गाव तकिये 
लगाई है वहां मखमली घास 
तुमने बारहोमास बहारों को वहीं रुक जाने का निमंत्रण भेजा है 

और बना रखा है तुमने वापसी का टिकिट खुद तुम्हारी खातिर 
की उस स्वप्न में छोड़ आना चाहते हो तुम मुझे 
और मैं थाम लूंगी तुम्हारा हाथ 
जिसमें रूई के फाहे की तरह सिमट जाउंगी मैं एक दिन 

एक कामना

एक ऐसा दरिया हो 
जो गुनगुने अहसासों से भरा हो 
मेरे घर में 
मेरे कमरे में 
मेरे बिस्तर में रहता हो 
जिससे मैं बार बार निकल कर 
बहती रहूँ 
जैसे बहती है गंगा 
शिव की जटाओं से निकल कर 
और जब भी मैं लौट कर आऊँ घर 
जिसमे डूब कर रह सकूं मैं 
सुबह शाम 
आठों पहर 

आजकल 


कामनाओं के घोड़े को 
खुला छोड़ दिया है आजकल 
चाहती हूँ वो सब जो मेरा प्राप्य है 
कहती हूँ दिल खोल 
जीती हूँ दिलखोल

शनिवार, 8 जून 2013

सूखे गुलमोहर के तले

चौके पर चढ कर चाय पकाती लडकी ने देखा 
उसकी गुडिया का रिबन चाय की भाप में पिघल रहा है
बरतनों को मांजते हुए देखा उसने 
उसकी किताब में लिखी इबारतें घिसती जा रही हैं 
चौक बुहारते हुए अक्‍सर उसके पांवों में 
चुभ जाया करती हैं सपनों की किरचें 

किरचों के चुभने से बहते लहू पर 
गुडिया का रिबन बांध लेती है वह अक्‍सर 
इबारतों को आंगन पर उकेरती और 
पोंछ देती है खुद ही रोज उन्‍हें 
सपनों को कभी जूडे में लपेटना 
और कभी साडी के पल्‍लू में बांध लेना 
साध लिया है उसने 

साइकिल के पैडल मारते हुए 
रोज नाप लेती है इरादों का कोई एक फासला 
बिस्‍तर लगाते हुए लेती है थाह अक्‍सर 
चादर की लंबाई की 
देखती है अपने पैरों का पसार और 
वह समेट कर रखती जाती है चादर को 

सपनों का राजकुमार नहीं है वह जो 
उसके घर के बाहर साइकिल पर चक्‍कर लगाता है 
उसके स्‍वप्‍न में घर के चारों तरफ दरवाजे हैं 
जिनमें धूप की आवाजाही है 
अमलतास के बिछौने पर गुलमोहर झरते हैं वहां 
जागती है वह जून के निर्जन में 
सूखे गुलमोहर के तले 

शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

एक अशालीन ज़िद


1. 
ऐसा थोड़े ही है 
कि मुझे मालूम न हो 
कौनसी बातें नहीं कहती शालीन स्त्रियाँ 
यदि मैं भी न कहूं वह सब 
जो वे नहीं कह पातीं 
अपनी हज़ार विवशताओं के आगे 
तो कौन कहेगा आखिर 


2. 
मैं शिकायत करती हूँ 
क्योंकि मैं न्याय की उम्मीद करती हूँ 

क्योंकि ऐसा मानती हूँ मैं कि 
व्यवस्था के इरादे नेक हैं 
और आपकी अक्ल पर 
मट्टी नहीं पडी है अब तक 

आपके सोचने, समझने, 
देख पाने की सामर्थ्य पर 
मेरा संदेह 
एक यकीनन नाउम्मीदी में 
बदला नहीं है अब तक 
खैर मानिए 

3. 
अंगारों से दहकते हैं मेरे शब्द 

जेठ की चिलमिलाती धुप में 
रेत पर नंगे पाँव चलना है 
मेरी कविताओं से गुज़रना 

बबूल के लम्बे सफेद कांटे सी 
धंस जाती है ह्रदय के आर पार 

आग नहीं उगल रही हूँ मैं 
यह अनुभव हैं जीवन के 
जिन्हें मेरी प्रजाति ने जिया है 
मैं तो बस 
उन्हें साझा करने का बायस भर हूँ