बंद आँखों में सपने थे
चौड़े कन्धों पर डाल
अपनी देह का भार
सपनीली उड़ान में उसने पंख नहीं खोले थे
हवा से भी हल्की
खुशबू से भी भीनी
शहद से भी मधुर
प्रेम सी झीनी
जाने कैसी थी वह
सपनों में डूबी
पगली सी
छू भर लेने से पिघल जाती
फूँक भर से उड़ जाती
बिखर जाती नज़र भर में ...
3 टिप्पणियां:
बड़े दिनों के बाद आपका आना हुआ है, अभी एक कहानी का ड्राफ्ट लिख कर उठा हूँ इसलिए आपकी कविता को थोड़ी देर बाद में पढ़ता हूँ.
बहुत सुन्दर भाषा है और उतनी ही कोमल भी
"सपनों में डूबी
पगली सी
छू भर लेने से पिघल जाती
फूँक भर से उड़ जाती
बिखर जाती नज़र भर में ..."
कमाल हैं ये पंक्तियाँ
बहुत सुंदर कविता.
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