रविवार, 11 अप्रैल 2010

पगली सी

बंद आँखों में सपने थे
चौड़े कन्धों पर डाल
अपनी देह का भार
सपनीली उड़ान में उसने पंख नहीं खोले थे

हवा से भी हल्की
खुशबू से भी भीनी
शहद से भी मधुर
प्रेम सी झीनी
जाने कैसी थी वह

सपनों में डूबी
पगली सी

छू भर लेने से पिघल जाती
फूँक भर से उड़ जाती
बिखर जाती नज़र भर में ...

3 टिप्‍पणियां:

के सी ने कहा…

बड़े दिनों के बाद आपका आना हुआ है, अभी एक कहानी का ड्राफ्ट लिख कर उठा हूँ इसलिए आपकी कविता को थोड़ी देर बाद में पढ़ता हूँ.

pramod ने कहा…

बहुत सुन्दर भाषा है और उतनी ही कोमल भी
"सपनों में डूबी
पगली सी

छू भर लेने से पिघल जाती
फूँक भर से उड़ जाती
बिखर जाती नज़र भर में ..."

कमाल हैं ये पंक्तियाँ

के सी ने कहा…

बहुत सुंदर कविता.