रविवार, 27 जून 2010

हवा झुलसा जाती थी

हवा झुलसा जाती थी उसकी इच्छाओं को

बूर ही जाती थी रेत खिलते सपनों को

उसके छोटे-छोटे सुख

दबे थे दूर-दूर तक पसरे धोरों के नीचे

वह लड़की

एक मरुस्थल में जीती थी

तपते रेगिस्तान के बीच

औसत ही मिला था उसे जीवन

पिता की आंखों में खटकने लगी थी उसकी देह

प्रेमी की आंखों में खुभती

पति ने सहलाया बहुत

लगाए थे गोते उसके अंधेरों में

पर

अनछुए ही रहे उसके दुख

भिगोया नहीं किसी बारिश ने

उसे गहरे तक

उसकी नम आंखों के मुंदने पर

भांय-भांय कर उड़ती थी रेत उसके भीतर

वहीं किसी मरीचिका की तरह

डबडबाता दीख पड़ता था

मां का कोमल चेहरा

दुःखों के पहाड़ ढोती मौसी

या हाड़ तोड़ती नानी

विलगा नहीं पाती थी इन चेहरों को वह

हर चेहरे में अपनी ही झलक मिलती उसे

वह भागती चली जाती थी नंगे पांव

जून के निर्जन मरुस्थल में

कहीं कोई कोयल नहीं कूकती

कहीं कोई अमलतास नहीं दीखता था उसकी आंखों को

बस

दूर-दूर तक पसरे धोरे थे

खेजड़ी के रूंख थे

आक थे

और दुःख थे उसके

जिनका भार

बढ़ता ही जाता था

लगातार।

6 जून 1998

1 टिप्पणी:

pramod ने कहा…

''दूर-दूर तक पसरे धोरे थे

खेजड़ी के रूंख थे

आक थे

और दुःख थे उसके

जिनका भार

बढ़ता ही जाता था

लगातार। ''
यह सब बहुत मार्मिक है