सोमवार, 5 दिसंबर 2011

मन करता है

मन करता है
धरतीनुमा इस गेंद को
लात मारकर लुढ़का दूं

मुट्ठी में कर लूं बन्द
सुदूर तक फैले इस आसमान को
या इसके कोनों को समेटूं चादर की तरह
और गांठ मार कर रख दूं
घर के किसी कोने में

नदियों में कितना पानी
यूं ही व्यर्थ बहता है
इसे भर लूं मटकी में
और पी जाऊँ सारा का सारा

इन परिन्दों के पंख
क्यूं न लगा दूं
बच्चों की पीठ पर
और कहूँ उनसे
उड़ो
भर लो उन्मुक्त उड़ान
चीर दो इस नभ को
इस कायनात में कोई भी सुख ऐसा न रहे
जिसे तुम पा न सको
कोई भी दुख ऐसा न हो
जिसकी परछायी छू भी सके तुमको

बहुत अदना सी है
मेरी पहचान
बहुत सीमित है सामर्थ्य
एक माँ के रूप में
लेकिन कोई भी ताकत इतनी बड़ी नहीं
जो रोक सके उन्हें
इस जीवन को जीने से
भरपूर
मेरे रह्ते

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सीधे और सरल शब्दों में शक्ति का स्रोतस्थल दिखाती कविता।

Rakesh Jain ने कहा…

superb....