कभी आता था दबे
पांव
अबकी बार आ
रहा है
हम सबके कांधों
पर सवार
रानी की नहीं
हत्यारे की हम
ढोएंगे पालकी अबकी बार
लोकतंत्र के
अंतिम क्षण पर हंसेंगे अबकी बार
शाही बैंड
बजाएंगे
खुशियों में
डूबेंगे उतराएंगे
तानाशाह का फरमान
है अबकी बार
'चुनो मुझे'
लोकतंत्र को
अभिशाप है अबकी बार
हम चुनेंगे उसे
जो विकल्प नहीं है अबकी बार
पूछा था गोरख ने
हे भले आदमियो !
कब जागोगे?
कहा था
हे भले आदमियो !
सपने भी सुखी और
आज़ाद होना चाहते
हैं ।
नींद हत्यारे के
सिरहाने नहीं उतरी लेकिन
भले आदमी हैं कि
जाने कब से सोए हैं
भले आदमी को पीट
रहा है भला आदमी
भला आदमी कह रहा
है नो आइडिया सर जी
हवा में गूंज रही इशरत जहां की सिसकियां
पटरियों पर दौड
रही हैं जलती हुई रेलें
बंद गली के
मुहाने पर खडा है हत्यारा
हजारों लाशों के
ढेर पर
कर रहा अट्टहास
1 टिप्पणी:
बहुत ही समसामयिक कविता
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