नहीं कहना
अब नहीं कहना
दुख है
जितना कहा
दुख बढता गया
अब नहीं कहना
सुख आओ
जितना पुकारा
सुख दूर होता गया
स्थितप्रज्ञ भी
नहीं
कभी दुख का कभी
सुख का पलडा
झुकता गया
कुछ भी होने और न
होने के बीच कहीं
सुख को पुकारना
नहीं
दुख को नकारना
नहीं
आंसू जो लुढकना
चाहता है
उसे आंख में
संजोना भी नहीं
गाल पर ढुलकाना
भी नहीं
सुरमा बना लेना
भी नहीं
यह जो आंसू मेरे
हैं
यह गढते मुझे
और मैं रचती जाती
जीवन
जितनी बार पराजय
उतनी बार नया
जीवन
मेरे सब दुख
मेरे भीतर सुख की
प्यास
बन घुलते जाते
तुम
एक तुम वह हो
जो तुम हो
बतियाते हो मुझसे
मुझे सुनते हो
जाने क्या सोचते
हो
जाने कैसे रहते
हो
क्या चाहते हो
क्यों चाहते हो
चाहते भी हो या
नहीं चाहते हो
एक तुम है
जो मुझमें है
शायद तुमसे मिलता
सा
शायद न मिलता हो
तुमसे इस तरह
मैं अपने भीतर के
इस तुम से बतियाती हूं
उसकी आवाजें तुम
तक जाती हैं
जब तुम कहते
हो
मैं मुझमें बैठे
तुम को सुनती हूं
यह जो तुम बाहर
हो
मेरे सामने
यह जो मुझमें है
क्या यह भी
बतियाते हैं
दोनों
शब्दार्थ
शब्द
अकेला
निरर्थक
जैसे सांप की
छोडी जा चुकी
केंचुल
जब तक
अर्थ की संगति न
मिले
अर्थ
कहां ठहरता है
किसी एक शब्द की
संगति में
अंटता ही नहीं
पूरा
हर शब्द के कई
अर्थ
जो कहा गया
जो सुना गया
कहां होता है
दोनों शब्दों का
एक अर्थ
जो कहना हो
उसके लिए सही
शब्द
किस कारखाने में
गढे जाते हैं
जो सुनने हों
वे शब्दे मिलते
हैं कहां
2 टिप्पणियां:
क्या था चाहा जीवन,
क्या चाहे पर ईश्वर,
प्रश्न सतत है,
उत्तर रिसता,
हर दिन, हर पल।
सुन्दरता से अभिव्यक्त किया है ..
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