रविवार, 3 जनवरी 2016

सवेरा होने तक

चाहती तो यह भी हूँ
कि दुनिया में बराबरी हो
न्‍याय हो
कोई भूखा न रहे
सबको मिले अच्‍छी शिक्षा
रोटी पर सबका हक हो
पानी पर सबका हक हो
सबके हिस्‍से में अपनी ज़मीन
सबका अपना आसमान हो

सीमाओं पर कँटीले तार न हों
फुलवारियाँ हों

हम इस तरह जाएँ पाकिस्‍तान
जैसे बच्‍चे जाते हैं नानी घर
या कराँची के सिनेमाघर में
देख कर रात का शो
लौट आएँ हम दिल्‍ली
और चल पड़ें काबुल की ओर
मनाने ईद

जिन सीमाओं पर विवाद हैं
वहाँ बना दिए जाएँ
कामकाजी माँओं के बच्‍चों के लिए
पालनाघर

नदियों पर बाँध न बनाए जाएँ
बसाई जाएँ बस्तियाँ
उन तटों पर
जहाँ बहती हैं नदियाँ

जंगलों में जिएँ जगल के वाशिंदे
वनवासियों की विस्‍थापित बस्तियाँ न बनें शहर
जंगलों को मुनाफे के लिए लूटा न जाए

शिक्षा और विकास जैसे पुराने शब्‍दों की
नई परिभाषाएँ गढ़ी जाएँ

बच्‍चा जो सड़क पर बेच रहा गुब्‍बारा
उसके हाथ में हों तो सही
गुब्‍बारों के गुच्‍छे
लेकिन वह खेल सके उनसे भरपूर
गुब्‍बारा से रंगों से खिले हों उसके सपने

ऐसी अनंत चाहतों की फेहरिश्‍त है मेरे पास
और इन सबके बीच है
एक छोटी सी चाहत
बस इतनी

मेरी आँखों में उगते इन सपनों को
तुन अपनी हथेलियों में चुन लो

और हम साथ चलें सवेरा होने तक के लिए 



('एक और अंतरीप' के अक्टूबर-दिसम्बर,2015 अंक में) 

2 टिप्‍पणियां:

GGShaikh ने कहा…

Gyasu Shaikh said:

मुलायम से भाव
मानवीय सदभावनाएं...
जायज़ ख़्वाब...
सुबह तक साथ चलने की
घनी संतुष्टि...

Asha Joglekar ने कहा…

आमीन। बेहद खूबसूरत रचना।