शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

प्यार को प्यार ही रहने दीजिये

सुबह की सैर के दौरान पार्क में निगाह उठी तो पाया बैंच के इर्द-गिर्द खड़े तीन पुरुष मेरी ही ओर देख रहे हैं। जाहिर है वे तीनों इस बात से अवगत थे कि तीनों सामने से गुजरती स्त्री को देख रहे हैं। पार्क इतना बड़ा नहीं कि मैं अपना रास्ता बदलती। मुझे और तीन-चार बार इसी राह से गुजरना था। अब हर बार देखे जाने की आशंका थी। मैंने खुद को वस्तु में रिड्यूस होते महसूस किया।‌‌ पहली बार मेरी नज़र अनायास उठी थी। यदि दोबारा नजर उठा कर देखूँ तो गलत समझ लिए जाने की आशंका थी, जबकि वे संभव है कि गलत समझ लिए जाने को प्रस्तुत हों। 

यह वह मामूली हिंसा है जिसे स्त्री किशोरावस्था से लेकर आजीवन झेलती है। वस्तु की तरह देखे जाने की हिंसा और धीरे-धीरे खुद वस्तु में रिड्यूस होते जाने की हिंसा। हम वह समाज हैं जिसमें मर्द पकड़े जाने पर निगाह फेर लेता है और स्त्री अपनी तरफ उठती निगाह को देख नजर झुका लेती है। किशोरावस्था में कभी बुरा लगने पर किसी से जवाब-तलब करना चाहा तो लड़के मुकर गए थे। वे समूह में थे, मैं अकेली। मुझे हमेशा ही बाहर निकलने की इजाज़त लेनी थी, जबकि बाहर की सारी जगहों पर लड़कों का सहज अधिकार था। मैंने अपने बाहर निकलने की आजादी को‌ बचाए रखने के लिए चुप रहना चुना। 

 

इस समय मुझे अपने बेटों के साथ किशोरावस्था के दौरान किए जाने वाले संवाद एक बार फिर याद आ रहे हैं। इतिहास जैसे बार-बार खुद को दोहराता है। किशोरावस्था वह समय होता है जब एक पुरुष समाज में स्त्रियों के साथ बराबरी से पेश आना सीखता है। ताज़ा घटना कुछ ही दिन पहले की है जब छोटे बेटे ने खाने की मेज पर बताया कि वह इन दिनों पीछे की गली में खेलने जाता है, क्योंकि उसके दोस्तों में से एक को उस गली में रहने वाली एक लड़की अच्छी लगती है। साथ ही उसने यह भी बताया कि उस गली में लड़कियां उनके साथ अच्छी तरह पेश नहीं आतीं। जब वह यह बता रहा था उस समय मेरा बड़ा बेटा भी साथ था। उसने भी लगभग सात-आठ बरस पहले इसी तरह के अनुभव साझा किए थे, जब मोहल्ले में नए-नए बने दोस्त एक खास गली में उनकी कक्षा में पढ़ने वाली एक लड़की की झलक देखने के लिए उसके घर के सामने साइकल चलाने या टहलने के लिये जाना पसंद करते थे।  

 

उस दिन खाने की मेज पर तीनों में कुछ देर तक इस बारे में बातचीत होती रही। यह बातचीत इन सवालों के इर्द-गिर्द थी कि "क्या तुम्हारा दोस्त जिस लड़की को पसंद करता है, उसने उसे यह बताया भी है? क्या वह लड़की भी तुम्हारे दोस्त को पसंद करती है? क्या तुम्हें यह अच्छा लगेगा कि कोई तुम्हें पसंद करता है, इसलिए तुम्हें देखा करे?" इन सवालों पर भी बात हुई कि किस तरह धीरे-धीरे किशोर होती लड़कियां मोहल्ले में खेलने के लिए निकलना बंद कर देती हैं, जबकि लड़के उनके घर का चक्कर लगाने के बाद गली-मोहल्ले में उनका पीछा करने लगते हैं। उन्हें पता ही नहीं चलता कि कब हंसी-खेल में होने वाली यह बातें ईव-टीसिंग में बदलने लगती हैं। उन दोस्तों के बारे में भी बात हुई जो अपने से महज कुछ छोटी बहनों को खेलने के लिए साथ नहीं लाते, जबकि  मोहल्ले में दूसरी लड़कियों को जा कर देखना चाहते हैं। उन माँओं और पिताओं के बारे में बात हुई जो न खुद एक-दूसरे के साथ बराबरी से पेश आते हैं और न ही अपने बच्चों को बराबरी के बारे में बता पाते हैं। यह सारी बातचीत इतने उदाहरणों के साथ हुई कि उसे इस बात का भरोसा रहे कि उसके दोस्त को गलत नहीं समझा जा रहा है, उसे डराया नहीं जा रहा है, दोस्ती को तोड़ने के लिए नहीं कहा जा रहा है बल्कि हो सके तो दोस्त से बात करने और यदि न हो सके तो उन कामों में शामिल न होने के लिए कहा जा रहा है जो किसी दूसरे व्यक्ति की निजता का उल्लंघन करते हैं।  कोई भी बातचीत एक दिन अचानक नहीं होती, बच्चों के पास चीजों को देखने का नजरिया धीरे-धीरे विकसित होता है। तेरह साल की उम्र तक आते-आते इस बच्चे ने कुछ ऐसा सीखा था कि उसे इस व्यवहार पर बात करने की ज़रूरत महसूस हुई थी।

 

मैंने जब अपनी एक दोस्त को बच्चों के साथ हुई इस बातचीत के बारे में बताया तो उसने कहा, "तुम कहीं बच्चे को असहज तो नहीं कर रही हो? इस उम्र में तो लड़के-लड़कियां एक-दूसरे को देखा ही करते हैं। लड़कियां भी किसी लड़के को पसंद करती हैं तो उन्हें देखना चाहती हैं।" लेकिन मुझे इस पर संशय था कि यह इतना ही समान रूप से एक-दूसरे को देखना होता है, या लड़कियां खुद भी अपने आप को वस्तु के रूप में पेश करने लगती हैं जबकि लड़के एक तरह के अधिकार, एंटाईटलमेंट के साथ किसी लड़की पर निगाह डालते हैं? मैं  सोशल मीडिया पर अपने सामने बड़े हुए बच्चों के व्यवहारों में इसकी झलक देखती हूँ कि कैसे देखते ही देखते किशोर से युवा होती लड़कियां फेसबुक या इंस्टाग्राम पर सज-संवर कर पाउट बनाती तस्वीरें पोस्ट करने लगीं हैं, जबकि लड़के दोस्तों के साथ घुमक्कड़ी, खेल या अन्य गतिविधियों में अपनी संलग्नता के बारे में पोस्ट लिखने लगे हैं, तस्वीरें लगाने लगे हैं। मानो लड़कियां दुनिया के लिए नुमाइश की वस्तु हों, लोगों की अप्रूवल के लिए खुद को पेश कर रही हों और लड़के बाहर की दुनिया के लिए तैयार जिम्मेदार मर्द। मैंने यह भी पाया कि बड़े बेटे के साथ कम उम्र में हुए इस तरह के संवाद ने उसे असहज नहीं किया, बल्कि लड़कों ही नहीं लड़कियों के साथ भी वह एक बेहतर दोस्त रहा, उनका राजदार भी रहा। वह खुद से सवाल करता है, अपनी साथी के सम्मान का खयाल रखता है। यह सवाल ऐसे तो हैं नहीं कि एक बार में सुलझ जाएँ, कई बार गलतियाँ भी होती हैं लेकिन व्यक्ति को बार-बार खुद से पूछना होता है। बात इतनी भर है कि स्त्री और पुरुष के बीच एक-दूसरे को देखने वाली निगाह कैसी है, यदि समय रहते इस पर संवाद होने लगे तो संभवतः वे इसके बारे में सजग रह सकें। वही सजगता जो संभवतः पार्क में खड़े उन पुरुषों में नहीं थी जो शायद मेरे सम-वयस्क तो रहे होंगे।    

 

जिन समाजों में नजर मिलने पर लोग स्वाभाविक तौर पर मुस्करा कर अभिवादन करते हैं वहां संभवतः स्त्री हर समय अपने आप को वस्तु में रिड्यूस होते महसूस न करती हो। जहां 'हंसी तो फंसी' का मुहावरा चलन में हो वहां आजीवन देह पर रेंगती निगाहों को नजरंदाज कर खुद में भरोसा बनाए रखना होता है। ऐसा तो दुनिया में कोई मुल्क नहीं है जहां औरतों के साथ हिंसा और बलात्कार नहीं होते, लेकिन संभव है दुनिया के कुछ हिस्सों में अदालतें और समाज इस तरह के प्रकरणों में स्त्री के वस्त्र, बलात्कार के समय और जगह पर बात कर उसके चरित्र का विश्लेषण न करते हों। सहमति और असहमति पर बात तो वहां भी होती होगी, लेकिन सामुहिक बलात्कार और हत्या के बाद पोस्टमार्टम रिपोर्ट को मेनिपुलेट न किया जाता होगा, लड़कियों को जिंदा जलाया न जाता होगा, बलात्कारी विधायकों और गुरुओं के समर्थन में सड़कों पर प्रदर्शन न किए जाते होंगे। अदालतें बलात्कारी की  'शैक्षिक प्रतिभा' को जमानत का आधार न बनाती होंगी, उन्हें मुल्क का भविष्य बता कर लड़की के साथ हुई हिंसा को रफा-दफा न कर देती होंगी, पत्नी की असहमति के बावजूद जबरदस्ती किए जाने वाले सेक्स को पति का अधिकार और पत्नी का कर्तव्य न बताती होंगी। 

 

जब आप किसी व्यक्ति को वस्तु के तौर पर देखते हैं तो उसके प्रति अपका नज़रिया उसके उपभोग का होता है। तो क्या मैं यह कहना चाहती हूँ कि पुरुष को स्त्री की ओर कामना की निगाह से देखना ही न चाहिए! नहीं, मैं ऐसा हरगिज नहीं कह रही हूं। मैं सिर्फ यह कहना चाहती हूं कि पुरुष को भी स्त्री के लिए उसी तरह काम्य होना चाहिए, स्त्री को भी उतना ही निर्द्वंद्व पुरुष को देख पाने की सामाजिकता होनी चाहिए। दोनों के बीच परस्पर कामना का स्वीकार और सम्मान होना चाहिए, लेकिन राह चलती स्त्री को देख कर वस्तु में मत बदलिए। सोशल मीडिया पर स्त्रियों के इनबॉक्स में हाय-हाय मत करते रहिए। समाज में ऐसे पुरुष तैयार हों जो स्त्रियों की निजता का सम्मान कर सकें, उसके लिए सही समय पर लड़कों के साथ संवाद कीजिये। रोजाना घर में और सड़क पर होने वाली छोटी-छोटी हिंसा को समझिए, उस पर बात कीजिए, उसका प्रतिकार कीजिये। लड़कों और लड़कियों के बीच प्यार को जिहाद का नाम मत दीजिये, प्यार को प्यार ही रहने दीजिये। लेकिन सड़क चलती स्त्री की निजता का सम्मान करना सीखिये। अपने बच्चों को यह ज़रूर बताइये कि वे कौनसे व्यवहार हैं जो प्यार नहीं हैं और वे कौनसे व्यवहार हैं जो किसी की निजता का उल्ल्ङ्घन करते हैं। यकीन मानिए हम मिल-जुल कर एक बेहतर समाज बना सकेंगे।


- देवयानी भारद्वाज 

1 टिप्पणी:

Deepak Kumar ने कहा…

बहुत ही सही लिखा है