रविवार, 9 जून 2019

काबुल मेरा यार

खालिद हुस्सैनी की किताब 'काइट रनर' के  एक अंश का अंग्रेजी से अनुवाद 


मलबा और भिखारी। जहाँ भी मेरी निगाह जातीबस यही नज़ारा था। मुझे याद है बचपन के दिनों में भी लोग भीख माँगते थे - बाबा सिर्फ उन्हें देने के लिए अपनी जेब में मुठ्ठी भर अफ़ग़ानी मुद्रा लेकर चलते थे। मैंने कभी उनको किसी माँगने वाले को खाली हाथ लौटाते नहीं देखा।  लेकिन अब भिखारी हर  गली के कोने में नज़र आ जाते हैंकटे-फटेऊल जलूल कपड़ों मेंमिट्टी सने हाथों को मामूली रेज़गारी के लिए फैलाए हुए। और अब ज़्यादातर भिखारी बच्चे हैंउदास चेहरों वालेदुबले-पतले बच्चेकुछ की तो उम्र पांच साल भी न होगी। वे गटर के किनारेगली के नुक्कड़ पर अपनी माँओं की गोदी में बैठे मिलते हैं और बस एक ही मंत्र दोहराते जाते हैं - "बख़्शीशबख्शीश!" और एक बात जिस पर अभी तक मेरा ध्यान नहीं गया थाउनमें से किसी के साथ कोई वयस्क पुरुष नहीं था - युद्ध ने अफ़ग़ानिस्तान में पिता को एक दुर्लभ प्रजाति बना दिया था।

हमारी गाड़ी पश्चिम में कारतेह सेह ज़िले की तरफ बढ़ रही थी। जहाँ तक मुझे याद है सत्तर के दशक में यह एक व्यस्त मार्ग हुआ करता था जादेह की तरफ जाने वाला। हमारे उत्तर की ओर सूखी पड़ी काबुल नदी थी। दक्षिण में पहाड़ों के ऊपर पुराने शहर की जर्जर दीवार थी और इसके ठीक पूरब मेंं शिरदरवाजा पर्वतमाला पर खड़ा बाला हिसार दुर्ग - वह प्राचीन गढ़ जिस पर 1992 में दोस्तम ने कब्ज़ा कर लिया था। वही पर्वतमाला जहाँ से 1992 से 1996 के दौरान मुजाहिद्दीनों ने रॉकेटों से हमले कर काबुल को छलनी कर दियावह विध्वंस जो अब मेरे सामने है। शिरदरवाज़ा पर्वतमाला पूरे पश्चिम में फैली है। मुझे याद है यहीं से दोपहर की वह गोलाबारी 'तोपे काश्तहुई थी। मैं रमज़ान के महीने में रोज़ाना दोपहर के वक्त और  शाम को इफ्तार का ऐलान करने जाता था। उन दिनों पूरा दिन गोलाबारी की आवाज़ों को सुना जा सकता था।
"मैं जब बच्चा था तब जादेह मार्ग तक भटकने के लिए चला आता था"मैं बुदबुदाया। "यहाँ दुकानें हुआ करती थींहोटल और नियोन लाइट वाले रेस्तराँ भी। मैं यहाँ सैफो नाम के एक बुज़ुर्ग से पतंग लेने के लिए आता था। पुराने पुलिस हेड क्वार्टर के पास उसकी पतंग की दुकान हुआ करती थी।"
"पुलिस हेड क्वार्टर अब भी वहीं है," फरीद ने कहा। "पुलिस की इस शहर में कोई कमी नहीं। लेकिन जादेह की तरफ के रास्ते पर या पूरे काबुल में अब कहीं पतंग या पतंग की दुकानें नहीं मिलेंगी. वो ज़माना गया।"
जादेह मार्ग अब एक बड़े रेत के महल सा नज़र आता है। वे इमारतें जो अभी तक ढही नहीं हैंरॉकेटों से हुई गोलाबारी से उनकी छतें छलनी हो चुकी हैं और किसी भी समय ध्वस्त हो जाने का ऐलान करती हैं। यह सारा इलाका मलबे में तब्दील हो चुका है। मैंने देखा मलबे के ढेर में दबा एक साइन बोर्ड जिस पर लिखा था 'कोका को...' । बिखरे पड़े ईंट और पत्थरों के टुकड़ों के बीच एक बिना खिड़कियों वाली जर्जर ईमारत में कुछ बच्चे खेल रहे थे। बच्चों के आस-पास कुछ मोटर साइकिल सवारखच्चर गाड़ियांआवारा कुत्ते  भटक  रहे थे और मलबे का ढेर लगा था। शहर को गर्द के गुबार ने ढँक रखा था और नदी के पार एक जगह से उठता धुआँ आसमान तक जा रहा था।
"पेड़ कहाँ गए?" मैंने पूछा।
"लोगों ने सर्दियों में जलावन की लकड़ी के लिए काट लिया उन्हें," फरीद ने बताया। "और बहुत सारे पेड़ शोरावियों ने काट डाले।"
"क्यों?" 
"छापामार निशानेबाज़ उनकी आड़ में छुप जाते थे।"
मुझे उदासी ने घेर लिया। काबुल लौटना मेरे लिए इस तरह था जैसे मुद्दत बाद एक पुरानेभुला दिए गए दोस्त से मुलाकात हो और पता चले कि ज़िन्दगी उसके साथ बहुत बेरहम रही। वह बेघर और बेसहारा हो गया है।
"मेरे पिताजी ने यहाँ शेरे कोहना में एक यतीमघर बनवाया थापुराने शहर मेंयहाँ से दक्षिण की ओर," मैंने कहा।
"मुझे याद है," फरीद ने कहा। "कुछ साल पहले वह भी उजाड़ दिया गया।"

"क्या मुझे वहां ले चल सकते हो," मैंने कहा। "मैं उस जगह को देख कर आना चाहता हूँ।"
फरीद ने एक गली में टूटी-फूटी बिना दरवाज़े वाली एक इमारत के पास फुटपाथ के किनारे गाड़ी रोकी। हम गाड़ी ने निकले तब फरीद बुदबुदाया, "यह दवा की दुकान थी।" हम जादेह की तरफ चलने लगेपश्चिम की ओर हम दाएं मुड़े। मेरी आँखों में जलन के साथ पानी आने लगा. मैंने फरीद से पूछा, "यह कैसी गंध है?"
"डीज़ल" फरीद ने बताया‌। "शहर में बिजली बार-बार चली जाती हैइसलिए जनरेटर हमेशा चलते रहते हैं। लोग उसके लिए डीज़ल का इस्तेमाल करते हैं।"
"डीज़ल। याद है उन दिनों इस गली में कैसी महक रहा करती थी? "

"कबाब!" फरीद मुस्कराया।
"मेमने का कबाब," मैंने कहा।
"मेमना," मन ही मन स्वाद लेते हुए फरीद ने कहा। " काबुल में मेमने का गोश्त अब सिर्फ तालिबान खाते हैं।" मुझे बाजू पकड़ कर खींचते हुए वह बुदबुदाया, "नाम लेते ही ..."
एक गाड़ी हमारी तरफ आ रही थी। "दाढ़ी  वालों की गश्त," फरीद ने कहा।
तालिबान को देखने का यह मेरा पहला मौका था। मैंने उन्हें टीवी पर देखा थाइंटरनेट परअखबारों और पत्रिकाओं में देखा था। और यहाँ मैं उनके सामने थामहज़ 50 फ़ीट की दूरी पर और मेरे मुंह का जायका बदल गया थाडर की एक ठंडी सी  लहर मेरे पूरे शरीर में दौड़ गयी। मानो मेरी खाल मेरी हड्डियों से चिपक गयी हो और दिल ने धड़कना बंद कर दिया हो। वे आ रहे थे। अपने पूरे रौब-दाब के साथ।
लाल रंग का टोयोटा ट्रक हमारे पास आते हुए लगभग ठहर गया। ट्रक के पिछले हिस्से में सख्त निगाह वाले नौजवानों की एक टोली बैठी थी और उनके कन्धों पर कलाश्निकोव टंगी  थी। सबने दाढ़ी रखी थी और काली पगड़ियां पहने थे।  उनमें से एक सांवले रंग का नौजवानघनी भौहों वालाजिसकी उम्र 20 बरस से ज़्यादा न  होगी, वह अपने हाथ में लिए हंटर को ट्रक के पीछे दाएं-बाएं एक लय में घुमा रहा था। उसकी यहाँ-वहाँ  घूमती निगाह मुझसे टकराई। हमारी नज़र मिली। मैंने अपने आप को इस तरह नंगा कभी महसूस नहीं किया था। और तभी उस तालिबान ने तम्बाकू थूक कर मुंह साफ़ किया और दूसरी तरफ देखने लगा। मेरी सांस में सांस लौट आयी। ट्रक धूल का गुबार उड़ाता हुआ जादेह के रास्ते पर बढ़ गया।
"तुम्हारी दिक्कत क्या है?" फरीद गुर्राया।
"क्या?"
"उनकी तरफ कभी  मत घूरना। तुम समझ रहे होकभी नहीं!"
"मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था," मैंने कहा।
"आपके दोस्त सही कह रहे हैंआग़ा। इसकी बजाय तो आप रेबीज़ वाले कुत्ते को लकड़ी चुभा कर छेड़ सकते हैं," किसी ने कहा। यह नयी आवाज़ एक बूढ़े भिखारी की थीजो पास ही एक जर्जरगोलियों से छलनी पुराने मकान की सीढ़ियों में नंगे पैर बैठा था। उसने तार-तार हो चुका चाप कोटचिथड़ेनुमा कपडे और धूल से सनी पगड़ी पहनी थी। उसकी बाईं पलक एक खाली कोटर पर झूल गयी थी। अपने आर्थराइटिस वाले हाथ से ट्रक जिस दिखा में गया उस तरफ इशारा करते हुए उसने कहा। "वे ताक में घूमते रहते हैं. इस ताक में कि कोई उनको उकसाये। देर-सबेर कोई न कोई उनकी इस इच्छा को पूरा कर देता है। फिर कुत्तों की दावत हो जाती हैउनकी बोरियत दूर होती है और वे सब एक साथ चिल्लाते हैं, 'अल्ला हू अकबर!और जब कोई उन्हें नहीं उकसाता तो हिंसा तो होती ही रहती हैहै न!"
"अपनी नज़र को अपने पैरों पर गड़ा कर रखोजब भी तालिबान आस-पास हों," फरीद ने कहा।
"आपका दोस्त सही सलाह दे रहा है," बूढ़े भिखारी ने कहा। उसने ज़ोर से खाँसा और अपने गीले-मिटटी सने रुमाल से मुंह ढँक लिया। उसने सांस संभालते हुए कहा,"माफ़ करनाक्या आप मुझे कुछ अफगानी दे सकेंगे?"
"बस! चलो यहाँ से,"  फरीद ने बांह पकड़ कर मुझे खींचते हुए कहा।
मैंने भिखारी को करीब सौ-हज़ार अफगानी दिएलगभग तीन डॉलर के बराबर रहे होंगे। जब वह लेने के लिए आगे झुका तो उसकी दुर्गन्धफटे दूध सी बदबू और कई हफ़्तों से नहीं धुले पैरों की गंधमेरे नथुनों में भर गयी और मुझे ज़ोर की उबकाई आने को हुई। उसकी इकलौती आँख चौकन्नी हो कर इधर से उधर घूमी और उसने जल्दी से पैसों को अपनी कमर में खोंस लिया। 

"आपकी उदारता के लिए शुकरानाआग़ा साहिब।"
"क्या आप जानते हैं कारते सेह में यतीमघर  कहाँ है?" मैंने पूछा.
"उसे ढूंढना मुश्किल नहींवह दारुलमान मार्ग के पश्चिम में ही है," उसने कहा। "जब राकेटों से पुराने यतीमखाने पर हमला हुआ तो यहाँ से बच्चों को वहीँ ले जाया गया था। यह ऐसा है जैसे किसी को शेर के मुंह से निकाल कर चीते के आगे डाल दो।"
"शुक्रिया आग़ा," मैंने कहा।
"यह आपका पहला मौका था न!"
"मैं समझा नहीं?"
"आपने पहली बार तालिबान को देखा था?" मैंने कुछ नहीं कहा। बूढ़े  भिखारी ने गर्दन हिलाई और मुस्कराया। उसके मुंह में बचे-खुचे दांत झांकने लगे- सब ऊबड़-खाबड़ और पीले। "मुझे याद है जब उन्हें पहली बार देखा था। काबुल की सड़कों पर गड़गड़ाते हुए। क्या खुशनुमा दिन था वह!" उसने कहा। "मौत का अंत! वाह वाह! लेकिन जैसा की शायर ने कहा है, "कितना मुसलसल नज़र आता था इश्क़ और तब मुसीबत आयी।"
मेरे चेहरे पर मुस्कान तैर गयी, "मैं जानता हूँ यह ग़ज़ल। हाफ़िज़ की है."
"हाँ यह उन्हीं की है," बूढ़े ने कहा। "मुझे मालूम रहना चाहिए। मैं इसे यूनिवर्सिटी में पढ़ाया करता था।"

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