मंगलवार, 3 नवंबर 2009

सृष्टि का भार

उसके माथे पर रखा है समूची सृष्टि का भार
कंधों पर उसके धरे हैं पहाड़
पीठ पर उठाये खड़ी है वह
चीड और देवदार
उसकी आंखों से छलकता है
समंदर

उसके हिस्से में टुकड़े-टुकड़े आता है आसमान
पहुंचता नहीं है उस तक बारिश का पानी
बस भीगते रहते हैं पहाड़,
चीड़ और देवदार

वह देखती है बारिश
अपनी सपनीली आंखों से
बढाती है हाथ
और डगमगाने लगता है
सृष्टि का भार
झुकने लगते हैं पहाड़

उसके कदमों को छु कर गुज़रती है नदी
उसके थके पाँव
डूब जाना चाहते हैं
उसके ठंडे मीठे पानी में
बारिश में देर तक भीगना चाहती है वह

कोई आओ
थाम लो कुछ देर सृष्टि
उठा लो कुछ देर पहाड़, चीड़ और देवदार
या भर लो उसे ही अपने भीगे दमन में इस तरह
की वह खड़ी रह सके
थामे हुए अपने माथे पर
अपनी ही रची सृष्टि का भार

5 टिप्‍पणियां:

के सी ने कहा…

सृष्टि के अजस्र प्राण स्रोत स्त्री के अस्तित्व की संवेदनशील कविता.

उठा लो कुछ देर पहाड़, चीड़ और देवदार
या भर लो उसे ही अपने भीगे दामन में इस तरह.

बहुत सुंदर!

Pradeep Kumar ने कहा…

कोई आओ
थाम लो कुछ देर सृष्टि
उठा लो कुछ देर पहाड़, चीड़ और देवदार
या भर लो उसे ही अपने भीगे दमन में इस तरह
की वह खड़ी रह सके
थामे हुए अपने माथे पर
अपनी ही रची सृष्टि का भार
bahut khoob !
lekin ye bhaar sambhaalne ki qovvat sab main nahi hoti
shayad rabhi naari ko itni sahanshakti waali kahaa gayaa hai
main to to yahee kah saktaa hoon ki

ik srishti ik naari dono hain ek dooje se bhaari,
apno ka hi bojhh uthaaye apnon ki peeda ki maari,
ik srishti ik naari.....

ShantiBhushan ने कहा…

Aapke vyaktitva ke is pehlu se hum to bahut hi anjaan the!!

sanjay vyas ने कहा…

इसे सिर्फ स्‍त्री विमर्श की रचना कहना ठीक नहीं होगा, इसमे कविता भी अपने भरपूर सौन्‍दर्य के साथ नज़र आती है.बहुत सुन्‍दर.बधाई.

pradeeprau786 ने कहा…

स्त्री के अस्तित्व की संवेदनशील कविता.