बुधवार, 26 मई 2010

यूं ही

उसके कदमों की आहट

सुनाई नहीं देती

खटकाता है वह कुंडी इस तरह

मानो डरता हो

कहीं जाग न जाए दीवार पर सोई छिपकली

इस तरह आता है वह

और घुल जाता है इस तरह

जैसे कभी गया ही न था

अपनी खिलखिलाती हंसी से

भर देना चाहता हो जैसे

उन तमाम कोनों को

उदासी जहां बाल बिखेरे बैठी है

कुछ देर के लिए ही सही

समेट लेती है वह जुड़े में अपने बाल

घूमने लगती है यूं ही

इधर-उधर

बनाती है चाय

बिखरे घर को समेटते

व्यस्त होने का दिखावा करती

हंसती है फीकी हंसी

जिसके किनारों पर

उदासी पांव जमाए बैठी है

वह बना रहता है अनजान

फिल्मों की बातें करता है

पूछता है बच्चों के हाल-चाल

अचानक घड़ी को देखते हुए

कुछ इस तरह चल देता है

जैसे याद आया हो अभी-अभी

छूट रहा कोई बेहद जरूरी काम

बहुत जल्दबाजी में विदा ले

निकल आता है वह सड़क पर

जहां घंटों भटकता है यूं ही

24 सितम्बर 2008

5 टिप्‍पणियां:

pramod ने कहा…

सुन्‍दर है बहुत.

के सी ने कहा…

कहवाघरों के रूमानी खालीपन सी... सुंदर कविता

Shekhar Kumawat ने कहा…

wow bahut khub

Sanjeet Tripathi ने कहा…

like it, jaisa apna hi sa kuchh ho

monali ने कहा…

chalchitra sa kheenchtio behad prabhavi rachna...