रविवार, 27 जून 2010

लौटना था घर

पराजित योद्धा की तरह

लौटना था घर

कोई युद्ध का मैदान नहीं

कोई वांछित सा संघर्ष भी नहीं

ऐसा भी नहीं था कुछ

जिसमें झोंका जा सके

समूची ऊर्जा को

एक घर से दफ्तर के बीच का फासला था

एक फासला था इच्छा से विवशता के बीच

ढेर सारा ट्रैफिक

ढेरों लोगों की बकझक थी

थोड़े से जीवन के बचे रहने की उम्मीद की तरह

रोजाना लौटना था घर

रोजाना के इस लौटने में

रोजाना की पराजय का बोध था।

25 सितम्बर 1998

9 टिप्‍पणियां:

Amitraghat ने कहा…

"रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के कशमकश का सरल से शब्दों में वर्णन....ये स्त्री-पुरूष दोनों के साथ बराबरी से होता है....बहुत बढ़िया..."

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

लौटना पराजय का बोध न हो अपितु आगामी विजय के पहले का विश्राम हो जाये ।

pramod ने कहा…

जिन्‍दगी को जीते हुए इस पराजय को बोध अक्‍सर ही होता रहता है
.
सून्‍दर कविता है.

के सी ने कहा…

कविता के पहले पठन में इसके केन्द्रीय भाव को नहीं पकड़ पाया. यह मनुष्य की अरुचिकर यात्रा से जुड़ी प्रतीत होती रही. इसमें उपस्थित उदासीनता ने व्यापक जगह घेर रखी है. आज इसे फिर से देखा तो कविता, दफ्तर और उसके साथ कवि के सम्बंध को बखूबी जीती हुई दिखाई दी.
दफ्तर की मेज - कुर्सियों की तरह के निर्जीव सम्बंधों से भरे माहौल से उपजी उदासीनता कहीं अवसाद और कहीं उपेक्षा में बदल जाया करती है. जीवन के दैनिक आरोहण में घुली हुई चीजों को भी कविता ने अपने भीतर समेट लिया है.

एक घर से दफ्तर के बीच का फासला था
एक फासला था इच्छा से विवशता के बीच...
ये पंक्तियाँ बहुत आसान शब्दों में एक पूरे दिन के हासिल और स्थितियों को लिख लेती हैं.

मुझे लगता है कि मनुष्य की प्राथमिकता सिर्फ जीना नहीं है और यही बात कविता में खुलती है. कविता प्रेम से ही जुड़ी है. उन चीजों और कार्यों के प्रेम से जो हमारी धमनियों को निरंतर कार्य करने को प्रेरित करे.

रोजाना लौटना था घर
रोजाना के इस लौटने में
रोजाना की पराजय का बोध था।

पराजय का बोध व्यक्त करते हुए भी एक नयी और वांछित ऊँचाई जाने का आग्रह कायम है... इस कविता ने मेरा खूब स्पेस घेरा है. बधाई.

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) ने कहा…

पराजय तब तक है.. जब तक घर पर कोई जीत का जश्न साथ मनाने वाला न हो..
ओफ़िस जाने मे कोई खुशी नही होती.. घर आने मे भी नही.. खुशियो के मानी छूटटे जाते है.. भुलते जाते है..

anilpandey ने कहा…

kya gajab kaha hai aapne . sakaee samasya hai ye sabhi ki

कुश ने कहा…

कई बार हार होती है और कई बार जीत.. ज़िन्दगी भी एक जंग है..

अपूर्व ने कहा…

कविता अपने फलक से कहीं और आगे जाती है..नियति के इस कोलोसियम मे हम सब किन्ही हारे हुए कैदी ग्लेडियेटर्स की तरह हैं..जिनके लिये यह रोज की लड़ाई इस एकमात्र सत्य है..बिना किसी अपेक्षा के..

Shebarakesh ने कहा…

...wonderful xpression of the daily ennui...
...Indeed...U have the sensibilty!