रविवार, 20 मार्च 2011

'क्या तुमने चाँद को देखा?'

'क्या तुमने चाँद को देखा?'
'होल्ड करो, मैं बालकोनी में जा कर देखती हूँ.'
'आज उसका रंग तुम्हारी पिंडलियों सा चमक रहा है.'
'काश की हम अपने अपने शहर से झुज्झा डालते और डोर को थाम झूला झूलते और इस तरह कहीं बीच में एक दूसरे को छू जाते. '

4 टिप्‍पणियां:

imprints ने कहा…

bahut sundar :)

के सी ने कहा…

और इस तरह कहीं बीच में एक दूसरे को छू जाते...

अप्राप्य कितना सम्मोहक होता है ?

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

वाह, बहुत सुन्दर।

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

अरे!!! कमाल!!