गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

१ . 
सच् होने लगते हैं ख्वाब

मैं कदम बढाती हूँ 
थोडा सा और आगे चली जाती हूँ 
मैं बाहें पसारती हूँ 
और सब कुछ सिमटता चला आता है करीब 
मैं निगाह उठाती हूँ 
और उडने लगती हूँ 
मैं ख्वाब देखती हूँ 
और सच् होने लगते हैं वे 
  
२. 
रिश्तों के नाम 
ज़रूरी तो नहीं के सब चीजों के नाम हुआ ही करें 
बहुत सारी चीजें बातें बिना नाम के भी होती हैं 
मह्सूसियत की तरह  
जैसे हर सुबह का नहीं होता अलग अलग नाम 
लेकिन हर सुबह होती है अलग हर दूसरी सुबह से 

३. 
यह दुनिया
यह दुनिया जैसी भी बन पाई है 
किसी एक अकेले कारीगर की कारस्तानी से नही बनी है 
हम सभी के पुरखों ने किया है अपनी अपनी तरह से योगदान 

हमारे कंधों पर सदियों का संचित बोझ है 
सदियों का संचित ज्ञान है हमारी झोली मैं 
सदियों के संचित रिश्तों ने गढा है हमे 
अच्छा या कम अच्छा जैसा भी 

यह जिद बेमानी है के रातो रात बदल देंगे हम इसकी शक्लो सूरत 
जितनी भी आजादी और जितने भी बन्धन आए है हमारी झोली में 
सबका है अपना इतिहास

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सदियों का बोझ, आशायें और उन्हें सच करने का ख्वाब..बहुत ही सलीके से शब्दों को सजाया है आपने।