1.
ऐसा थोड़े ही है
कि मुझे मालूम न हो
कौनसी बातें नहीं कहती शालीन स्त्रियाँ
यदि मैं भी न कहूं वह सब
जो वे नहीं कह पातीं
अपनी हज़ार विवशताओं के आगे
तो कौन कहेगा आखिर
2.
मैं शिकायत करती हूँ
क्योंकि मैं न्याय की उम्मीद करती हूँ
क्योंकि ऐसा मानती हूँ मैं कि
व्यवस्था के इरादे नेक हैं
और आपकी अक्ल पर
मट्टी नहीं पडी है अब तक
आपके सोचने, समझने,
देख पाने की सामर्थ्य पर
मेरा संदेह
एक यकीनन नाउम्मीदी में
बदला नहीं है अब तक
खैर मानिए
3.
अंगारों से दहकते हैं मेरे शब्द
जेठ की चिलमिलाती धुप में
रेत पर नंगे पाँव चलना है
मेरी कविताओं से गुज़रना
बबूल के लम्बे सफेद कांटे सी
धंस जाती है ह्रदय के आर पार
आग नहीं उगल रही हूँ मैं
यह अनुभव हैं जीवन के
जिन्हें मेरी प्रजाति ने जिया है
मैं तो बस
उन्हें साझा करने का बायस भर हूँ
11 टिप्पणियां:
महसूस किया हमने भी!
उस ऊष्णता में समाज संतुलित नहीं जी पायेगा।
अनुभव ही संयमित आग उगलता है,अहर्निश जलता है
आपकी कुछ रचनाओं को पढ़ा मैनें... अजीब सी कशिश है उनमें ! कुछ है... जो बाहर से साधारण सा दिखता है...मगर अपने भीतर आग लिए हुए है... !
मैनें आज से आपका ब्लॉग join कर लिया !
~सादर!!!
बहुत ही सुंदर और बेहतरीन रचनाएँ।
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवार के चर्चा मंच पर ।।
आग नहीं उगल रही हूँ मैं
यह अनुभव हैं जीवन के
जिन्हें मेरी प्रजाति ने जिया है
मैं तो बस
उन्हें साझा करने का बायस भर हूँ
....बहुत खूब!
देवयानी आपकी कुछ एक रचनाएँ पढ़ी मैं | बहुत ही अच्छा शब्दों का संगम है | एक गहराई नज़र आती है आपकी सोच में आपके व्यक्तित्व में | आशा है आप ऐसे ही लिखती रहेंगी | आपके ब्लॉग की सदस्यता ले ली है आगे भी पढता रहूँगा | आभार |
तमाशा-ए-ज़िन्दगी
दबे हुये अंगार, हवा के झोंकों में चिंगारियाँ नहीं बिखेरेंगे तो पता कैसे चलेगा !
waah! waah! bahut hi umda.....
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