तुम्हारी हथेली में समा जाये ऐसा रूई का फाहा हो जाना चाहती हूँ मैं
तुम्हारी हथेली में समा जाये ऐसा रूई का फाहा हो जाना चाहती हूँ मैं
मुंह में घुल जाए ऐसी गुड़ की डली हो जाना चाहती हूँ हवा की तरह अदृश्य
फुहार की तरह नम
बिजली सी चमकदार
नदी सी प्रवाहमान
वो सब कुछ हो जाना चाहती हूँ
जिसकी कामना करते हुए
तुम सहेजते हो मुझे हर बार
टूटने से बचाते हुए
बात सिर्फ इतनी सी है कि
स्टेशन पर छूटने को तैयार खड़ी गाडी के पीछे
दौड़ चली थी मैं
दौड़ते दौड़ते हांफने लगी
अजीब ज़िद्दी धुन थी सवार
कि भागती ही रही जब तक कि
हो न गयी निढ़ाल
फिलहाल थकन तारी है
टूट रहा है जोड़ जोड़
यह जो नेह का मलहम है
इससे लेप लेना चाहती हूँ
समूची देह मन और प्राण
पर जख्म अभी हरे हैं
रह रह कर उठती है टीस
रिसने लगता है लहू यहाँ वहां
पर अपार है तुम्हारा धैर्य
तुमने स्वर्ग के द्वार पर सजा रखे हैं गाव तकिये
लगाई है वहां मखमली घास
तुमने बारहोमास बहारों को वहीं रुक जाने का निमंत्रण भेजा है
और बना रखा है तुमने वापसी का टिकिट खुद तुम्हारी खातिर
की उस स्वप्न में छोड़ आना चाहते हो तुम मुझे
और मैं थाम लूंगी तुम्हारा हाथ
जिसमें रूई के फाहे की तरह सिमट जाउंगी मैं एक दिन
एक कामना
एक ऐसा दरिया हो
जो गुनगुने अहसासों से भरा हो
मेरे घर में
मेरे कमरे में
मेरे बिस्तर में रहता हो
जिससे मैं बार बार निकल कर
बहती रहूँ
जैसे बहती है गंगा
शिव की जटाओं से निकल कर
और जब भी मैं लौट कर आऊँ घर
जिसमे डूब कर रह सकूं मैं
सुबह शाम
आठों पहर
आजकल
कामनाओं के घोड़े को
खुला छोड़ दिया है आजकल
चाहती हूँ वो सब जो मेरा प्राप्य है
कहती हूँ दिल खोल
जीती हूँ दिलखोल
1 टिप्पणी:
कामनाओं के घोड़े को
खुला छोड़ दिया है आजकल
चाहती हूँ वो सब जो मेरा प्राप्य है
कहती हूँ दिल खोल
जीती हूँ दिलखोल
वाह बेहतरीन
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