मंगलवार, 11 जून 2013

सदानीरा में प्रकाशित कविताओं में से

तुम्हारी हथेली में समा जाये ऐसा रूई का फाहा हो जाना चाहती हूँ मैं 


तुम्हारी हथेली में समा जाये ऐसा रूई का फाहा हो जाना चाहती हूँ मैं 
मुंह में घुल जाए ऐसी गुड़ की डली हो जाना चाहती हूँ हवा की तरह अदृश्य 
फुहार की तरह नम 
बिजली सी चमकदार 
नदी सी प्रवाहमान 
वो सब कुछ हो जाना चाहती हूँ 
जिसकी कामना करते हुए 
तुम सहेजते हो मुझे हर बार 
टूटने से बचाते हुए 

बात सिर्फ इतनी सी है कि 
स्टेशन पर छूटने को तैयार खड़ी गाडी के पीछे 
दौड़ चली थी मैं
दौड़ते दौड़ते हांफने लगी 
अजीब ज़िद्दी धुन थी सवार 
कि भागती ही रही जब तक कि 
हो न गयी निढ़ाल 
फिलहाल थकन तारी है 
टूट रहा है जोड़ जोड़ 

यह जो नेह का मलहम है 
इससे लेप लेना चाहती हूँ 
समूची देह मन और प्राण 
पर जख्म अभी हरे हैं 
रह रह कर उठती है टीस 
रिसने लगता है लहू यहाँ वहां 
पर अपार है तुम्हारा धैर्य 
तुमने स्वर्ग के द्वार पर सजा रखे हैं गाव तकिये 
लगाई है वहां मखमली घास 
तुमने बारहोमास बहारों को वहीं रुक जाने का निमंत्रण भेजा है 

और बना रखा है तुमने वापसी का टिकिट खुद तुम्हारी खातिर 
की उस स्वप्न में छोड़ आना चाहते हो तुम मुझे 
और मैं थाम लूंगी तुम्हारा हाथ 
जिसमें रूई के फाहे की तरह सिमट जाउंगी मैं एक दिन 

एक कामना

एक ऐसा दरिया हो 
जो गुनगुने अहसासों से भरा हो 
मेरे घर में 
मेरे कमरे में 
मेरे बिस्तर में रहता हो 
जिससे मैं बार बार निकल कर 
बहती रहूँ 
जैसे बहती है गंगा 
शिव की जटाओं से निकल कर 
और जब भी मैं लौट कर आऊँ घर 
जिसमे डूब कर रह सकूं मैं 
सुबह शाम 
आठों पहर 

आजकल 


कामनाओं के घोड़े को 
खुला छोड़ दिया है आजकल 
चाहती हूँ वो सब जो मेरा प्राप्य है 
कहती हूँ दिल खोल 
जीती हूँ दिलखोल

1 टिप्पणी:

Vandana Ramasingh ने कहा…

कामनाओं के घोड़े को
खुला छोड़ दिया है आजकल
चाहती हूँ वो सब जो मेरा प्राप्य है
कहती हूँ दिल खोल
जीती हूँ दिलखोल

वाह बेहतरीन