रविवार, 30 जून 2013

आत्‍मालाप

क्‍या दिन में चौबीस की बजाय चंवालीस घंटे नहीं हो सकते 

सप्‍ताह में सात ही दिन क्‍यों होते हैं 
नौ दिन हो जाते तो क्‍या बुरा था 

क्‍या इतवार दो नहीं आ सकते 

रात सोने के लिए क्‍यों होती है 
रातों में क्‍या जाग कर काम नहीं किया जा सकता 

आखिर इस देह को भोजन, पानी, आराम की जरूरत ही क्‍या है 
कितना कुछ तो है 
जो हर वक्‍त करने के लिए अधूरा छूटा रहता है 
सिर्फ ऐसा कुछ 
जो अपने सही समय पर होता रहे 
तो चलता रह सके जीवन का कारोबार 

पर समय कमबख्‍त हमेशा कम क्‍यों होता है 

क्‍या इन घडी की सूइयों को बांध कर नहीं रखा जा सकता 

इन्‍हें तो घूमना होता है सिर्फ एक दायरे में
लेकिन कैसी सांसत में रहती है जान 
इनके पीछे 

क्‍या कभी ऐसा नहीं हो सकता कि 
दुनिया की सारी घडिृया कुछ देर के लिए ठप्‍प पड जाएं 

3 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

उलाहना उत्तम उचित, करके उचित विचार |
चार चार सन्डे दिए, लगातार इस बार ||

हा हा हा --
आभार आदरणीया

रश्मि प्रभा... ने कहा…

कितना कुछ बदल दिया जाता है कानून के नाम पर
एक कानून 15 - 15 दिनों के पाक्षिक सप्ताह की बन सकती है
जिसमें 2 सोमवार
2 मंगलवार
2 बुधवार
2 गुरूवार
2 शुक्रवार
2 शनिवार
3 रविवार ……….

इकट्ठे मिल जाये छुट्टी तो कई कठिनाइयाँ सही हो जाएँ
घर-समाज-परिवार, …सबकी शिकायतें दूर ….
सोचो कभी ऐसा हो तो क्या हो :)

रश्मि प्रभा... ने कहा…

एक कानून 15 - 15 दिनों के पाक्षिक सप्ताह का बन सकता है
कानून की मर्ज़ी